शनिवार, 28 जून 2014

सच-सच बतलाना




शशि पाधा
1
भरमाए रहते हो
बरसो तो जानें
बस छाए रहते हो ।
2
कुछ पल को तड़पोगी
गर हम बरस गए
चुनरी में भर लोगी ।
3
कुछ समझ नहीं आता
सच-सच बतलाना -
बिजुरी से क्या नाता ?
4
मुझको बिजुरी भाती
नभ की गलियों में
हम बचपन के साथी ।
5
थोड़े से काले हो
धूप बताती है
कुछ भोले- भाले हो ।
6
हम तो बंजारे हैं
इत-उत फिरते हैं
औरों से न्यारे हैं ।
7
क्यों रोज़ सताते हो
इक पल दिख जाते
दूजे छिप जाते हो ।
8
यह खेल पुराना है
आँख मिचौनी को
सबने पहचाना है ।
9
यह बात  तभी जानूँ
मन के आँचल में
छिप पाओ तो मानूँ ।
10
इस पल को तरस गए
आँखें मींचो तो
लो हम तो बरस गए ।
11
आँखों में भर लेंगे
तुझको मोती- सा
पलकों पे धर लेंगे ।
12
बूँदें जो झरती हैं
आँखों की झीलें
हमसे ही भरती हैं ।
13
सावन को जाने दो
तुम तो रुक जाना
त्योहार मनाने दो ।
14
लो कैसे जाएँगे
डोरी प्रीत- भरी
हम तोड़ न पाएँगे।
-0-

बुधवार, 25 जून 2014

टूटते सपने



रचना श्रीवास्तव
          पिछले महीने की बात है।  बेटे को उसकी क्लास तक छोड़ के जब मै स्कूल के बाहर आई तो तो देखा भीड़ लगी है ।बहुत से अभिवावक जमा हैं  ।मुझे लगा क्या हुआ! देखा तो सामने एक घर को गिराया जा रहा था। लोहे के बड़े बड़े दाँत उस घर में  धँसते और घर का एक बड़ा हिस्सा उसके मुँह में समा जाता।
          अजीब- सी आवाज के साथ वो घर टूटने लगा। पता नहीं क्यों मुझे लगा कि वो घर दर्द से चीख रहा है। आज कितनी बेरहमी से इसको नोचा जा रहा था ! कभी बहुत प्यार से इसको बनाया गया होगा। इस घर की दीवारों पर कभी  हँसी  चिपकी होगी तो कहीं आँसुओं से नम तकिया होगा। इसके कमरों में जिंदगी पली होगी। यदि घ्यान से देखें तो इसकी ज़मीन पर नन्हे क़दमों के निशान आज भी दिखेंगें। एक  कमरे में हैंगर पर कोई ड्रेस  टँगी थी। सुरसा की तरह  मुँह खोलती क्रेन जब उस  बढ़ी ,मन किया की उसको रोक दूँ पर कहाँ मेरे कहने से कोई रुकता और क्यों रुकता। हैंगर सहित वो ड्रेस उसके लोहे के दाँतों पर झूलने लगी। कितने  प्यार से इसको ख़रीदा गया होगा! कितनी पार्टियों में लोगों ने इसको तारीफ भी की होगी, पर आज ये धूल में पड़ा  है।
           घर टूटता जा रहा था।लोग फोटो ले रहे थे वीडिओ बना रहे थे; पर मेरा मन न जाने क्यों  खुश नहीं था। वो घर नहीं टूट रहा था, किसी के सपने बिखर रहे थे। थोड़ी देर में पूरा घर अपना वजूद खो चुका था। मुझे लगा- मलवे के नीचे दबे बहुत से सपने मेरी ओर हाथ बढ़ाकर मदद के लिए गुहार लगा रहे हैं। और मै कुछ नहीं कर  पा रही थी। उस दिन मुझे लगा  कि घर बनाने में कितना समय लगता है, लेकिन उसको तोड़ने में बस कुछ घंटे। .......
        लोहे के दाँत
        चबा गए सपने
        टूटा वो  घर 
       -0-

शनिवार, 21 जून 2014

सीली दीवारें



डॉ०भावना कुँअर
1
भीगे हों पंख
धूप से माँग लूँ मैं
थोड़ी गर्मी उधार,
काटे हैं पंख
जीवन का सागर
कैसे करूँ मैं पार !
 2
दे गया कौन
बनकर अपना
सौगातें ये जख़्मी-सी
मेरा जीवन
बना मकड़जाल- सा
साँसे  फँसी-मक्खी सी ।
3
भर रहीं हैं
मन भीतर बातें
तेरी वो सीलन- सी,
सीली दीवारें
टूटे - बिखरे किसी
ज्यों घर- आँगन की।
-0-

गुरुवार, 19 जून 2014

ये खेल लकीरों के



1-डॉ० हरदीप सन्धु
1
सब गीत पुराने हैं
संग चलो गाएँ
पल आज सुहाने हैं ।
2
अब दर्द  दवाई है
सुधि बीते पल की
आँखें  भर आई है ।
 3
दुखड़ों  की  खाई है
छुपकर रोने की
किस्मत  ये पाई है  
4
ये खेल लकीरों के
मिलकर फिर  बिछुड़े
निर्णय तकदीरों के ।
-0-
2-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
जीवन भर पाँव जले
चैन मिला तेरे
आँचल की छाँव -तले  
2
ये हाथ न छूटेगा
बन्धन जन्मों का
पल में ना टूटेगा ।
3
सागर तिरके आए
तट पर जब पहुँचे
तुमसे ना मिल पाए ।
4
कितना अँधियारा है !
तुम जो पास रहो
हर पल उजियारा है ।
5
हम चाहे भूल करें
तेरा दिल दरिया
खुशबू औ फूल भरे ।
6
कितने हम जनम धरें !
नेह मिला इतना
सौ-सौ घट रोज़ भरें।
7
जग का दस्तूर यही
जो तुमने चाहा
रब को मंजूर नहीं
8
जीभरके कब देखा
दो पल को आए
बनके शम्पा -रेखा ।
-0-